Sunday, February 14, 2010

किसको कहूं शिवसेना!

मनोज राठौर
शिव नाम की धून लोगों को नई ऊर्जा प्रदान करती है। लगता है कि ताकत दोगुनी हो गई। भगवान शंकर की बारात में शिव भक्त शामिल हुए थे। उनका आवरण कुछ भी हो, लेकिन आत्मा पवित्र थी। मुंबई में शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने सेना की छवि खराब कर दी। वह सत्य के साथ चल कर उसके साथ छल कर रहे हैं। धर्म के लिए लड़ना ठीक है। मगर, उसकी आड़ में हित को सिद्ध करने को क्या कहेगें। मौलिकता के सिद्धांत पर चलने के लिए कर्म को सार्थक बनाना पड़ता है। आज के युग में सबकुछ उलटापुलटा है। शिव सेना के नाम का सहारा लेकर काम रावण का हो रहा है। लोग चोला ओड़कर देश में आतंक मचा रहे हैं। हमें जानना है कि शिवजी की सेना क्या है। मुंबई की सेना को कौन सी सेना कहे, यह समझ से परे है। इसका उत्तर कठिन जरूर है, लेकिन लोगों समझ में आने लगा होगा। सब कुछ मालूम होने के बाद भी जनता अंधी बनी हुई है। भेड़ के पीछे चलना मजबूरी है या फितरत। इसका जबाव भीड़ में घुम रहे वह नागरिक ही दे सकते हैं, जो बिना सोचे-समझे उग्र रूप धारण करते हैं। हित किसी भी पक्ष का हो, लेकिन नुकसान देश का होता है।
मुंबई की शिवसेना अब रण सेना बन गई है। देश के हित के लिए रण में उतरना ठीक है। मगर, देश के विरोध में उतराने वाला देशद्रोही कहता है। आज जिन कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है वह देशद्रोही की श्रेणी में आते हैं। मुंबई की राजनीति सबके समझ में आती है। क्या हो रहा है, लक्ष्य क्या है, किसके लिए हो रहा है, किसके इसारे पर किया जा रहा है। सब जानते हैं, यह बात। फिर भी आंखों पर काली पट्टी बांधकर अंधे रास्ते पर चले जा रहे हैं। हम पढ़े-लिखे वर्ग से तालुक रखते हैं। समझदार के लिए इसारा काफी है। मुंबई नगरी रण में तबदील हो गई। बार-बार विरोध के तीर छोड़े जाते हैं। आखिर मकसद क्या है। कभी फिल्म, बयानबाजी और कई अनकही बातों को आधार बनाकर शिवसेना के कार्यकर्ता मारपीट, तोड़फोड और उग्र प्रदर्शन कर मीडिया में जरूर आते हैं। यह दिखाना और प्रकाशित करना प्रतिस्पर्धा के युग में मजबूरी है। मगर, आत्मा खरीदने की औकात किसी की नहीं। कवरेज के साथ मीडिया लोगों को सच से अवगत भी कराती है। यह सब यूं ही चलता रहेगा। मगर, फैसला किसे करना है। उसे नहीं पता। वह अनभिज्ञ है। राजनीति करो, हितों को दूर रखकर। मुंबई में बिलकुल उलटा हो रहा है। जीतना-हारना लगा रहता है। सत्य के लिए हार भी स्वीकार है। किसी शायर ने कहा कि हमारी फितरत में नहीं है हारना, मगर कमबख्त मजबूरी बन गई है। जीतो और देश को दिखाओं के हम शिवसैनिक है, हम भारतीय है, हम देशप्रेमी है, हम देश हितेषी हैं। सब बताओं, लेकिन ऐसा काम नहीं करो जिससे देश की शांति भंग होती है। बात-बात में सेना की छवि खराब करना। यह किसके हित में है। शिवसेना का वर्जस्व सर्वाेपरी है। उसे कायम रखना कार्यकर्ता का दायित्व है। देश हित के लिए मर जाना भी कम है। सिद्धांतों का पालन करना ही शिवसेना कार्यकर्ता का दायित्व है। राजनीतिक गलियारों से होकर गुजरना, लेकिन वहां दुकानदारी नहीं करना। कहने का मकसद है कि राजनीति भी करो, लेकिन देश के हित में।
मौसम आ गया है देश पर मरने का
ऊर्जा
देने वाला महरवान है तुझ पर

...उसे फिजूल खर्च मत करना।

Thursday, February 11, 2010

विदेश में सुरक्षित नहीं है बिटिया

मनोज राठौर
विदेश में रहने वाली भारतीय बिटिया की सुरक्षा के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय तथा राष्ट्रीय महिला आयोग की पहल अच्छी है। एनआरआई (अप्रवासी भारतीय) सेल के माध्यम से विदेशी पतियों की काली करतूत सामने आएगी। हालांकि, व्याप इंतजाम करने के बाद भी प्रताड़ना की शिकायत आना बं नहीं हुई। विदेशी कभी अपनी हरकत नहीं छोड़ते। हम भरोसा कर हर बार धोखा खाते है। चाहे वह पाकिस्तान या चीन का मामला हो। सबकुछ साफ-साफ नजर आता है। इसके बाद भी सबकुछ हजम कर लिया जाता है।
एनआरआई पतियों के जुल्मों की शिकार महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा गठित की गई सेल का काम विवाह के बाद एनआरआई पतियों द्वारा छोड़ दी गई, उनके जुल्म या धोखाधड़ी की शिकार महिलाओं की मदद करना है। शिकायत प्राप्त होने पर आयोग उनकी सहायता करेगा। 27 अगस्त 2009 को एनआरआई सेल ने अपना काम करना शुरू किया। छह माह की अवधी में सेल के पास वैवाहिक अनबन जैसी 177 शिकायतें आ चुकी हैं यानी औसतन रोजाना एक शिकायत। सबसे अधिक शिकायत 130 अमेरिका, 44 बिट्रेन और 37 कनाडा की है। यह सेल का आंकड़ा है। मगर वास्तविक स्थिति कुछ ओर ही है। हर मामले की शिकायत सेल में आए, यह संभव नहीं है। जागरूकता और भय के कारण महिलाएं शिकायत करने से कतराती हैं। आयोग का तर्क है कि शादी की स्थिति में विवाह का पंजीकरण और दो पासपोर्ट महिला को न्याय दिलाने में मददगार साबित होगा। यह महिलाओं के लिए जीवन का सबसे दुखद पहलू होगा, जिसमें न्याय मिलना भी बेकार होता है। विधेयक की मांग में वैवाहिक अनबन, पत्नियों के लिए गुजारा भत्ता, बच्चों की अभिरक्षा, वैवाहिक संपत्ति के निपटारे पर कानून शामिल है। यह विधेयक विदेशी अदालतों के लिए एनआरआई व भारतीय नागरिकों के बीच मुकदमों के निपटारे में मदद करेगा। अभी तक विधेयक पारित नहीं हुआ। मतलब साफ है कि आयोग के चिंतन करने मात्र से समस्या का हल नहीं निकल जाता। सरकार भी सामने आए और जल्द ही गहरी नींद से जाग जाए। विदेशों में अधिकांश एनआरआई पति पत्नी को छोड़कर भाग जाते हैं। उनके इंतजार में महिलाओं की आंख का पानी सूख जाता है, लेकिन जाने वाला नहीं आता। वह दूसरी नांव में सवार होकर समुद्र की लहरों का मजा लेता है। समझना हमारी जिम्मेदारी है और समझना उनकी जबावदारी है। यह तर्क नहीं, सच है। बात को समझना ही समझदारी है।

Monday, February 08, 2010

बयानबाजी बनी ताकत

मनोज राठौर
झू किसी सही काम के लिए बोला जाए तो उसे माफी मिल जाती है। मगर भारत की बिड़वना है कि राजनीतिक दल अपने हित के लिए झूठ बोलते हैं। उन्हें न जनता से मतलब और न ही देश से। बयान से लोगों का दिल जीतने वाले नेता हमेशा छल करते हैं। धर्म, समाज, भाईचारा, एकता, आतंकवाद, नकस्लवाद या फिर विभिन्न विषयों पर बोलने पर नेताओं को महारथ हासिल है। मंच पर आने के बाद उनकी स्थिति कुछ ऐसी हो जाती है, जैसे शंक में हवा मारी और बज पड़ा।
हम सभी लोगों को पता है कि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकी संगठन लश्कर एवं हिजबुल भारत में घुसपैठ की फिराक में रहता है, लेकिन सुरक्षा का कवज बन बैठे नेताओं का एक ही जबाव होता है। वह कहते हैं कि भारत में आतंकवादी हमले करने में लश्कर-ए-तय्यबा, हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी संगठनों का हाथ है, जो कश्मीर के रास्ते हिन्दुस्तान में प्रवेश कर रहे हैं। उन्हें मौका मिला और चालू हो गए। वह लोगों को बताना चाहते हैं कि आतंवादी संगठन साजिश रच रहा है। हम भी चुप नहीं। पूरी तैयारी कर ली है। आने दो उन्हें देख लेगें। हर बार एजेंसी ने सरकार को चेताया है। उन्हें सुरक्षा के व्यापक इंतजाम करने के संकेत दिए। हिम्मत देखो, इस पर जिम्मेदार नेताजी पलड़ा नहीं छाड़ते। वह शान से बयानबाजी कर लोगों को भ्रमित करते हैं। उनके पास वोटर बढ़ाने का इससे बड़ा मौका नहीं होता। मंच पर पहुंचकर ऐसे शुरू हो जाते हैं कि मानों कोई पुराना गाना लगा दिया हो। मीडिया की वाइट में भी निष्कर्ष निकलकर सामने आता है कि आतंकवादी मामले में सख्ती से निपटने की तैयारी कर ली है, जल्द ही देश से आतंकवाद को सामाप्त किया जाएगा। आज के लोग समझदार है, उन्हें पता की नेताओं के भाषण में अपना समय खराब करना है। वह भाषण सुनने के लिए रूकते तक नहीं। दूसरी ओर ऐसे कथित नेताओं के भाषणबाजी में भाड़े की जनता एकत्रित की जाती है। प्रत्येक चुनाव, बड़े-बड़े समारोह में अकसद गांव से लोगों को लाया जाता है। कार्यकर्ता खाने से पीने तक की व्यवस्था करते हैं। अब हमे समझना है कि आखिर कोई चाहता क्या है? कह सकते हैं, हम अंधे नहीं। हमारी दो आखं और कान है। सब सुनते है। बंद करो बयानबाजी। सही मार्ग पर चले, तो ताकत हम देगें।

Thursday, February 04, 2010

बेटा सबकुछ, बेटी बोझ

मनोज राठौर
आज
के युग में लोगों के लिए बेटा ही सबकुछ है। बेटी उसेबोझ लगती है। अब आधुनिकता के कारण पता चल जाता है कि गर्भ में पलने वाला भू्रण लड़का है या फिर लड़की। यदि बेटा होता है तो परिजन खुशी का ठिकाना नहीं रहता। वह मोहल्ले में हजारों रुपए की मिठाई बांट देते हैं। मगर, हमारे देश की बिड़वना है कि बेटी होने पर उसकी गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। उसके परिजन बोझ समझता है। उस समय किसी को पता नहीं रहता है कि जिस की हत्या की जा रही है वह बुढ़ापे में उसकी लाठी होगी।
जीवनभर
की खून पसीने की कमाई से बेटे का पालन-पोषण किया जाता है। भले ही बाद वह बुढ़ापे में सहारा नहीं बने। देश का कानून सख्त हुआ और उसने भू्रण की हत्या करने वाले पर सजा की मंशा बनाई। मगर, कहते है कि कोई कितना भी पहरा लगाए, लेकिन हरकत करने वाला कभी नहीं चुकता। आज संस्कार और सामाजिकता को निखाने वाली बेटियां ही कम हो रही हैं। उनके प्रति समाज सचेत तो है, लेकिन जागरूक नहीं। इसका परिणाम क्या होगा? इसका जबाव आने वाली पीढ़ी से मिल सकता है, जो धरा पर आने से भी डर रही है।
खुशी की बात है कि आने वाले समय में महिलाओं के प्रति अपराध कम हो जाएगें, लेकिन अपराध से बड़ा अपराध लोगों के सामने आएगा। शादी के लिए लोगों के बीच खून-खराबा होगा। ऐसे में मुझें नहीं लगता है कि अपराध पर अंकुश लगेगा। 25 वर्ष पूर्व ही सामाजिक विशेषज्ञों ने कहा था कि जिस दहेज समस्या से पीड़ित होकर समाज कन्या भु्रण हत्याएं कर रहा है। वह उसके लिए अंतिम हल नहीं है। बल्कि, इससे आने वाले युग में जो अपराध होंगे वह अधिक भयानक होगें, जिसकी कल्पना करने से भी रूह कापती है। अभी लड़कियां पर्याप्त है, इसलिए लड़के इधर-उधर नजरें मारकर काम चलाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जब उनकी संख्या कम होगी, तो उनके इर्द-गिर्द सैकड़ों लड़के नजर आएगें। रास्तों में भीड़ रहेगी, सड़कों पर जाम लग जाएगा। कुछ ऐसी निर्मित होगी कि कोई महिला राष्ट्रपति निकलने वाली हो। दहेज देने की उलटी रस्म शुरू होगी और वर पक्ष नाक रगड़ते हुए लड़की का हाथ मांगने पहुंचेगा। फिर कहा जाएगा कि तू इंतजार कर, अभी तेरा नंबर लाइन में है। लड़की सही समय पर मिल गई तो ठीक है वरना अंतिम समय तक कुंवारा रहना पड़ेगा। लड़कियां नहीं होने से एक दिन ऐसा संकट आयेगा, जिससे कोई वर्ग अछूता नहीं रहेगा। इसके बाद नारीवादी लेखक भी मांग और पूर्ति के सिंद्धातों पर विचारधीन होगा। पुरूष अधिक होंगे तो उनकी मांग कम और स्त्री संख्या में कम है तो उनकी मांग अधिक होगी। देश में मांग बढ़ जाएगी और उसकी पूर्ति कम होने पर क्या स्थिति निर्मित होगी? इसका तो भगवान ही मालिक है। कन्या भु्रण हत्याओं के बारे में विशेषज्ञों की चेतावानी को अनदेखा करते हुए जिस तरह समाज आगे बढ़ रहा है, उसका परिणाम दुध का दुध और पानी का पानी है।